Sunday, September 11, 2011

संदूक


मैंने फिर आज
पुरानी यादों का
संदूक खोला
गुज़रे लम्हों को तोला।

कुछ ढलके आँसू
जो अब भी नर्म थे,
भूले बिसरे अफ़साने
जो अब तक गर्म थे।

कुछ मोटी, कुछ पत्थर
जो मैंने बटोरे थे।
बचपन की यादों के
रेशमी डोरे थे।

कागज़ के टुकड़े थे
अनलिखी कहानी थी।
हो गई फिर ताज़ी
पीर जो पुरानी थी।

बंद संदूक में
ख्वाहिश की कतरन थी।
टेबल की थापें थीं
टुकड़े थे, परन थीं।

देखा, सराहा
कुछ आँसू बहाए।
बंद संदूक में
फिर सब छिपाए।


मैंने फिर आज
पुरानी यादों का
संदूक खोला
गुज़रे लम्हों को तोला।

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