Wednesday, June 29, 2011

जब से मैं

यह शब्द मेरे कुछ उन दोस्तों के नाम है जो समाज की बंदिशों को तोड़कर आगे आये है कुछ मेरे तरह और आज दुनिया उन्हें उगते सूरज की तरह देखता है, उन दोस्तों को के लिए ख़ास

जब से मै छपने लगा अख़बार में
बढ़ गयी क़ीमत मेरी बाज़ार में



अस्ल रिश्तों का खुल़ासा कल हुआ
जब उन्हे परखा गया मँझधार में



बन्द कर आँखें मैं तेरे पास हूँ
ढूँढता है क्यूँ मुझे अश्जार में



कौन दरवाज़े पे आ कर रूक गया
सुगबुगाहट बढ़ गयी है बार में



जुर्म उनका कल सुबह साबित हुआ
शाम वो शामिल हुए सरकार में



रौशनाई उठ क़लम का साथ दे

दीमकें लगने लगी तलवार में



Tuesday, June 28, 2011

Walking Away

How do you walk away when you know not where you are going
You watch as the love goes down slowly like the sun setting over the horizon
Darkness soon takes over
But still you cannot Walk away

You search your mind, you search your heart trying to find the signs that tried to warn you
About the brewing storm, but you find none
It just rained without warning
You close your eyes and hope to open them to the blinding sunlight, but the storm rages on
It's time to walk away.

You search for a hundred reasons to stay, but you can only find one- love
"But is it enough?", your mind asks, yet your heart begs you to reconsider before you walk away.

Maybe dawn is coming, or maybe the night will be longer
Maybe summer is on its way, or maybe winter is here to stay
Maybe there are greener pastures beyond the distant hills, or maybe it's drier
Maybe I should leave, or maybe I should stay
But the green hills are calling me
I am walking away.

Was This Love I Wondered


A feeling so raw, so real

Everything seems surreal

An emotion deep down

A sensation so unknown

Was this love I wondered?

A pull, a tug of the heart

As though struck with a dart

Deep and vast like the ocean

A thought and an intuition

Was this love I wondered?

The twinkle of stars in the sky

So beautiful I wonder why

Nature at once felt so beckoning

Its beauty I felt was so alluring

Was this love I wondered?

A spring and bounce in my step

I felt so full of pep

Love for life, love for someone

A desire to live and be the one

To hold a hand and gaze at the moon

With thoughts of time flying too soon

If this was love,

I needn’t wonder why

Neither a tear nor a cry

Smile and laughter was all I knew

In my mind I felt anew

This was love I felt so sure

A feeling so deep and so pure

Sunday, June 26, 2011

रहनुमा

रस्म ऐ दुआ ना दूर से निभाइए जनाब
 हैं मेरे रहनुमा तो कभी आईये जनाब

अखबार रसालों में इतना खाश क्या है दर्ज
दिले कागजात पर नज़र घुमाइए जनाब

इस तरह नही तोड़ते उमीदे आशियाँ
झूठी सही कोई आस तो दिलाइये जनाब


बसते हो इतने दूर यादों तक की दुश्वारी
ख्वाबों में ही कभी नज़र तो आइये जनाब


नज़र की आरजू है दिले आईने की ख्वास्त
नज़रों से मेरी नज़रें भी मिलाइए जनाब

कैसा हमेशा देखना गैरों के ऐब ही
आँखों को कभी आइना दिखाइए जनाब


कहते हैं इनायत का आगाज़ नही आसां
तदबीर हैं, ताबीर भी बताइए जनाब


चेहरे की सुर्खियाँ तो ढलती हैं ढलेंगी
दिल की रकम न चेहरों पे लुटाइए जनाब


बड़ी – बड़ी बातों का क्या होता है सबब
पने अमल का दायरा बढ़ाइए जनाब



ये झूठ है अगर तो खफा होइए जरूर
थोडा भी सच अगर है मुस्कुराइए जनाब



ये तुझसे अकीदत के हैं चंद लफ्ज़ दोस्त
ना मीर की ग़ज़ल इन्हें बनाइये जनाब



समर्पण

दोस्तों यह मेरा एक समर्पण है इंसान की शक्ल मेरे भगवान् को........ मेरी अपनी माँ को ........


धड़कते, सांस लेते, रुकते-चलते मैंने देखा है,

कोई तो है जिसे अपने में पलते मैंने देखा है.

तुम्हारे ख़ून से मेरी रगों में ख़्वाब रोशन हैं,

तुम्हारी आदतों में ख़ुद को ढ़लते मैंने देखा है.

मेरी ख़ामोशियों में तैरती हैं तेरी आवाज़ें,

तेरे सीने में अपना दिल मचलते मैंने देखा है.

किसी की रहनुमाई की मुझे अब क्या ज़रूरत है,

तुम्हारा नूर अपने साथ चलते मैंने देखा है.

मुझे मालूम है उनकी दुआएं साथ चलती हैं,

सफ़र की मुश्किलों को हाथ मलते मैंने देखा है.

तुम्हारा अज़्म है जो ख़्वाब में आवाज़ देता है,

ख़ुद अपने आपको नींदों में चलते मैंने देखा है.

कोशिश

करे कोशिश अगर इंसान तो क्याक्या नहीं मिलता
वो उठकर चल के तो देखे जिस रस्ता नहीं मिलता !

भले ही धूप हो, कांटे हों पर चलना ही प़डता है
किसी प्यासे को घर बैठे कभी दरिया नहीं मिलता !

कहें क्या ऐसे लोगों से जो कहकर ल़डख़डाते हैं
कि हम आकाश छू लेते मगर मौका नहीं मिलता !

कमी कुछ चाल में होगी, कमी होगी इरादों में
जो कहते कामयाबी का हमें नक्शा नहीं मिलता!

हम अपने आप पर यारो भरोसा करके तो देखें
कभी भी ग़िडग़िडाने से कोई रुतबा नहीं मिलता!

Wednesday, June 22, 2011

आईने से

आईने से कब तलक तुम अपना दिल बहलाओगे


छाएँगे जब-जब अंधेरे ख़ुद को तन्हा पाओगे।



हर हसीं मंज़र से यारों फ़ासले क़ायम रखो

चाँद गर धरती पे उतरा देखकर डर जाओगे।



आरज़ू, अरमान, ख्व़ाहिश, जुस्तजू, वादे, वफ़ा

दिल लगाकर तुम ज़माने भर के धोखे खाओगे।



आजकल फूलों के बदले संग की सौग़ात है

घर से निकलोगे सलामत, जख्म़ लेकर आओगे।



ज़िंद़गी के चंद लम्हे ख़ुद की ख़ातिर भी रखो

भीड़ में ज़्यादा रहे तो ख़ुद भी गुम हो जाओगे।



हाले-दिल हमसे न पूछो दोस्तों रहने भी दो

इस तकल्लुफ़ में तो तुम अपने चलन से पाओगे।

इन सहमे हुए शहरों की फजा कुछ कहती है

इन सहमे हुए शहरों की फजा कुछ कहती है


कभी तुम भी सुनो, ये धरती क्या कुछ कहती है

ये ठिठरी हुई लम्बी रातें कुछ पूछती हैं

ये खामोशी आवाज़नुमा कुछ कहती है

सब अपने घरों में लम्बी तान के सोते हैं

और दूर कहीं कोयल की सदा कुछ कहती है

कभी भोर भए, कभी शाम पड़े, कभी रात गए

हर आन बदलती रुत की हवा कुछ कहती है

नासिर आशोबे- ज़माना से गाफ़िल न रहो

कुछ होता है जब ख़ल्के-खुदा कुछ कहती है

सीने में बसर करता है

सीने में बसर करता है ख़ुशबू सा कोई शख़्स,


फूलों सा कभी और कभी चाकू सा कोई शख़्स।



पहले तो सुलगता है वो लोबान के जैसे,

फिर मुझमें बिखर जाता है ख़ुशबू सा कोई शख़्स।



मुद्दत से मिरी आँखें उसी को हैं संभाले,

बहता नहीं अटका हुआ आँसू सा कोई शख़्स।



ख़्वाबों के दरीचों में वो यादों की हवा से,

लहराता है उलझे हुए गेसू सा कोई शख़्स।



बरगद का शजर देखा तो इक हूक सी उट्ठी ,

जब बिछड़ा था मुझसे मिरे बाजू सा कोई शख़्स।



ग़ज़लों की बदौलत ही तो वो मुझमें बसा है

सरमाया ऐ हस्ती है उर्दू सा कोई शख़्स।



नाकामी के घनघोर अंधेरों मे भी संकल्प

मिल जाता है उम्मीद के जुगनू सा कोई शख़्स।



सिसकियाँ

भले ही मुल्क के हालात में तब्दीलियाँ कम हों


किसी सूरत गरीबों की मगर अब सिसकियाँ कम हों।



तरक्की ठीक है इसका ये मतलब तो नहीं लेकिन

धुआँ हो, चिमनियाँ हों, फूल कम हों, तितलियाँ कम हों।



फिसलते ही फिसलते आ गए नाज़ुक मुहाने तक

जरूरी है कि अब आगे से हमसे गल्तियाँ कम हों।



यही जो बेटियाँ हैं ये ही आखिर कल की माँए हैं

मिलें मुश्किल से कल माँए न इतनी बेटियाँ कम हों।



दिलों को भी तो अपना काम करने का मिले मौका

दिमागों ने जो पैदा की है शायद दूरियाँ कम हों।



अगर सचमुच तू दाता है कभी ऐसा भी कर ईश्वर

तेरी खैरात ज्यादा हो हमारी झोलियाँ कम हों।

अपना मन भी आखिर कब अपना मन होता है

उस पर जाने किस किसका तो बंधन होता है


अपना मन भी आखिर कब अपना मन होता है ।



तन से मन की सीमा का अनुमान नहीं लगता

तन के भीतर ही मीलों लम्बा मन होता है ।



वह भी क्या जानेगा सागर की गहराई को

जिसका उथले तट पर ही देशाटन होता है ।



अँधियारा क्या घात लगाएगा उस देहरी पर

जिस घर रोज उजालों का अभिनन्दन होता है ।



दुख की भाप उठा करती हैसुख के सागर से

ऐसा ही, ऐसा ही शायद जीवन होता है ।



हम-तुम सारे ही जिसमें किरदार निभाते हैं

पल-पल छिन-छिन उस नाटक का मंचन होता है ।



तन की आँखें तो मूरत में पत्थर देखेंगी

मन की आँखों से ईश्वर का दर्शन होता है ।

जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला

जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला


कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ

जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।



जिस दिन मेरी चेतना जगी मैंने देखा

मैं खड़ा हुआ हूँ इस दुनिया के मेले में,

हर एक यहाँ पर एक भुलाने में भूला

हर एक लगा है अपनी अपनी दे-ले में

कुछ देर रहा हक्का-बक्का, भौचक्का-सा,

आ गया कहाँ, क्या करूँ यहाँ, जाऊँ किस जा?

फिर एक तरफ से आया ही तो धक्का-सा

मैंने भी बहना शुरू किया उस रेले में,

क्या बाहर की ठेला-पेली ही कुछ कम थी,

जो भीतर भी भावों का ऊहापोह मचा,

जो किया, उसी को करने की मजबूरी थी,

जो कहा, वही मन के अंदर से उबल चला,

जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला

कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ

जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।



मेला जितना भड़कीला रंग-रंगीला था,

मानस के अन्दर उतनी ही कमज़ोरी थी,

जितना ज़्यादा संचित करने की ख़्वाहिश थी,

उतनी ही छोटी अपने कर की झोरी थी,

जितनी ही बिरमे रहने की थी अभिलाषा,

उतना ही रेले तेज ढकेले जाते थे,

क्रय-विक्रय तो ठण्ढे दिल से हो सकता है,

यह तो भागा-भागी की छीना-छोरी थी;

अब मुझसे पूछा जाता है क्या बतलाऊँ

क्या मान अकिंचन बिखराता पथ पर आया,

वह कौन रतन अनमोल मिला ऐसा मुझको,

जिस पर अपना मन प्राण निछावर कर आया,

यह थी तकदीरी बात मुझे गुण दोष न दो

जिसको समझा था सोना, वह मिट्टी निकली,

जिसको समझा था आँसू, वह मोती निकला।

जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला

कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ

जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।



मैं कितना ही भूलूँ, भटकूँ या भरमाऊँ,

है एक कहीं मंज़िल जो मुझे बुलाती है,

कितने ही मेरे पाँव पड़े ऊँचे-नीचे,

प्रतिपल वह मेरे पास चली ही आती है,

मुझ पर विधि का आभार बहुत-सी बातों का।

पर मैं कृतज्ञ उसका इस पर सबसे ज़्यादा -

नभ ओले बरसाए, धरती शोले उगले,

अनवरत समय की चक्की चलती जाती है,

मैं जहाँ खड़ा था कल उस थल पर आज नहीं,

कल इसी जगह पर पाना मुझको मुश्किल है,

ले मापदंड जिसको परिवर्तित कर देतीं

केवल छूकर ही देश-काल की सीमाएँ

जग दे मुझपर फैसला उसे जैसा भाए

लेकिन मैं तो बेरोक सफ़र में जीवन के

इस एक और पहलू से होकर निकल चला।

जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला

कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ

जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।