Sunday, September 11, 2011

संदूक


मैंने फिर आज
पुरानी यादों का
संदूक खोला
गुज़रे लम्हों को तोला।

कुछ ढलके आँसू
जो अब भी नर्म थे,
भूले बिसरे अफ़साने
जो अब तक गर्म थे।

कुछ मोटी, कुछ पत्थर
जो मैंने बटोरे थे।
बचपन की यादों के
रेशमी डोरे थे।

कागज़ के टुकड़े थे
अनलिखी कहानी थी।
हो गई फिर ताज़ी
पीर जो पुरानी थी।

बंद संदूक में
ख्वाहिश की कतरन थी।
टेबल की थापें थीं
टुकड़े थे, परन थीं।

देखा, सराहा
कुछ आँसू बहाए।
बंद संदूक में
फिर सब छिपाए।


मैंने फिर आज
पुरानी यादों का
संदूक खोला
गुज़रे लम्हों को तोला।

Sunday, September 4, 2011

दुआ


हँसने का हँसाने का हुनर ढूंढ रहे हैं
हम लोग दुआओं में असर ढूंढ रहे हैं

अब कोई हमें ठीक-ठिकाने तो लगाए
घर में हैं मगर अपना ही घर ढूंढ रहे हैं

जब पाँव सलामत थे तो रस्ते में पड़े थे
अब पाँव नहीं हैं तो सफ़र ढूंढ रहे हैं

क्या जाने किसी रात के सीने में छिपी है
सूरज की तरह हम भी सहर ढूंढ रहे हैं

हालात बिगड़ने की नई मंज़िलें देखो
सुकरात के हिस्से का ज़हर ढूंढ रहे हैं

कुछ लोग अभी तक भी अंधेरे में खड़े हैं
कुछ बात  करने की सहर  ढूंढ रहे हैं

हँसने का हँसाने का हुनर ढूंढ रहे हैं
हम लोग दुआओं में असर ढूंढ रहे हैं