Wednesday, June 22, 2011

अपना मन भी आखिर कब अपना मन होता है

उस पर जाने किस किसका तो बंधन होता है


अपना मन भी आखिर कब अपना मन होता है ।



तन से मन की सीमा का अनुमान नहीं लगता

तन के भीतर ही मीलों लम्बा मन होता है ।



वह भी क्या जानेगा सागर की गहराई को

जिसका उथले तट पर ही देशाटन होता है ।



अँधियारा क्या घात लगाएगा उस देहरी पर

जिस घर रोज उजालों का अभिनन्दन होता है ।



दुख की भाप उठा करती हैसुख के सागर से

ऐसा ही, ऐसा ही शायद जीवन होता है ।



हम-तुम सारे ही जिसमें किरदार निभाते हैं

पल-पल छिन-छिन उस नाटक का मंचन होता है ।



तन की आँखें तो मूरत में पत्थर देखेंगी

मन की आँखों से ईश्वर का दर्शन होता है ।

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