Wednesday, June 22, 2011

सीने में बसर करता है

सीने में बसर करता है ख़ुशबू सा कोई शख़्स,


फूलों सा कभी और कभी चाकू सा कोई शख़्स।



पहले तो सुलगता है वो लोबान के जैसे,

फिर मुझमें बिखर जाता है ख़ुशबू सा कोई शख़्स।



मुद्दत से मिरी आँखें उसी को हैं संभाले,

बहता नहीं अटका हुआ आँसू सा कोई शख़्स।



ख़्वाबों के दरीचों में वो यादों की हवा से,

लहराता है उलझे हुए गेसू सा कोई शख़्स।



बरगद का शजर देखा तो इक हूक सी उट्ठी ,

जब बिछड़ा था मुझसे मिरे बाजू सा कोई शख़्स।



ग़ज़लों की बदौलत ही तो वो मुझमें बसा है

सरमाया ऐ हस्ती है उर्दू सा कोई शख़्स।



नाकामी के घनघोर अंधेरों मे भी संकल्प

मिल जाता है उम्मीद के जुगनू सा कोई शख़्स।



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