Sunday, June 26, 2011

रहनुमा

रस्म ऐ दुआ ना दूर से निभाइए जनाब
 हैं मेरे रहनुमा तो कभी आईये जनाब

अखबार रसालों में इतना खाश क्या है दर्ज
दिले कागजात पर नज़र घुमाइए जनाब

इस तरह नही तोड़ते उमीदे आशियाँ
झूठी सही कोई आस तो दिलाइये जनाब


बसते हो इतने दूर यादों तक की दुश्वारी
ख्वाबों में ही कभी नज़र तो आइये जनाब


नज़र की आरजू है दिले आईने की ख्वास्त
नज़रों से मेरी नज़रें भी मिलाइए जनाब

कैसा हमेशा देखना गैरों के ऐब ही
आँखों को कभी आइना दिखाइए जनाब


कहते हैं इनायत का आगाज़ नही आसां
तदबीर हैं, ताबीर भी बताइए जनाब


चेहरे की सुर्खियाँ तो ढलती हैं ढलेंगी
दिल की रकम न चेहरों पे लुटाइए जनाब


बड़ी – बड़ी बातों का क्या होता है सबब
पने अमल का दायरा बढ़ाइए जनाब



ये झूठ है अगर तो खफा होइए जरूर
थोडा भी सच अगर है मुस्कुराइए जनाब



ये तुझसे अकीदत के हैं चंद लफ्ज़ दोस्त
ना मीर की ग़ज़ल इन्हें बनाइये जनाब



No comments:

Post a Comment