Friday, November 27, 2009

ज़िन्दगी

साँस जाने बोझ कैसे जीवन का ढोती रही

नयन बिन अश्रु रहे पर ज़िन्दगी रोती रही
एक नाज़ुक ख्वाब का अंजाम कुछ ऐसा हुआ
मैं तड़पता रहा इधर वो उस तरफ़ रोती रही
भूख , आंसू और गम ने उम्र तक पीछा किया
मेहनत के रुख पर ज़र्दियाँ , तन पर फटी धोती रही
उस महल के बिस्तरे पे सोते रहे कुत्ते , बिल्लियाँ
धूप में पिछवाडे एक बच्ची छोटी सोती रही
तंग आकर मुफलिसी मन खुदखुशी कर की मगर
दो गज कफ़न को लाश उसकी बाट जोती रही
'दीपक' बशर की ख्वाहिशों का कद इतना बढ गया
ख्वाहिशों की भीड़ में कहीं ज़िन्दगी खोती रही


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