Friday, November 27, 2009

सारे जहाँ से अच्छा, हिन्दोस्तां हमारा



  यू कहे तो देश प्रेम की भावना हम सब के दिल में होती है पर ज़िन्दगी की इस तेज़ रफ़्तार न जाने वो कहा चली जाती है , पर फिर भी हर एक इंसान जो माँ शब्द का अर्थ जानता है ,वो जनता है देश की मिटटी जो उसे पालती  है वो मिटटी ही  देश रूपी माँ होती है .
       वो माँ जो खुद आगे से कभी कुछ नही  मांगती  
वो माँ जो हमारे  नन्हे-(२)  कदमो का बोझ उटती है
            वो माँ जो अन्नपूर्णा   बनती है
वो  माँ एक हाड  मांस  के पुतले को  देश प्रेम   सीखाती  है
मोहमद इकबाल की यह कविता  प्रगाड़ करती है उसी माँ की तस्वीर को जो हम सबके दिलो में रची बसी है

सारे जहाँ से अच्छा, हिन्दोस्तां हमारा
हम बुलबुलें हैं इसकी, यह गुलिसतां हमारा







गुरबत में हों अगर हम, रहता है दिल वतन में
समझो वहीं हमें भी, दिल हो जहाँ हमारा







परबत वो सबसे ऊँचा, हमसाया आसमाँ का
वो संतरी हमारा, वो पासवां हमारा







गोदी में खेलती हैं, जिसकी हज़ारों नदियाँ
गुलशन है जिसके दम से, रश्क-ए-जिनां हमारा







ऐ आब-ए-रौंद-ए-गंगा! वो दिन है याद तुझको
उतरा तेरे किनारे, जब कारवां हमारा







मजहब नहीं सिखाता, आपस में बैर रखना
हिन्दी हैं हम वतन हैं, हिन्दोस्तां हमारा







यूनान, मिस्र, रोमां, सब मिट गए जहाँ से ।
अब तक मगर है बाकी, नाम-ओ-निशां हमारा







कुछ बात है कि हस्ती, मिटती नहीं हमारी
सदियों रहा है दुश्मन, दौर-ए-जहाँ हमारा







'इक़बाल' कोई मरहूम, अपना नहीं जहाँ में
मालूम क्या किसी को, दर्द-ए-निहां हमारा







सारे जहाँ से अच्छा, हिन्दोस्तां हमारा
हम बुलबुलें हैं इसकी, यह गुलिसतां हमारा ।






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